भाग १ 

 

भगवान् के साथ मनुष्य का सम्बन्ध

 


जीवन का सच्चा लक्ष्य

 

    हम धरती पर क्यों हैं?

 

भगवान् को पाने के लिए जो हममें से हर एक के अन्दर और सभी चीजों में हैं ।

*

 

     बस एक ही चीज महत्त्वपूर्ण है, वह है भगवान् को पाना ।

 

     हर एक के लिए और समस्त जगत् के लिए हर चीज उपयोगी हो सकती है यदि वह भगवान् को पाने में सहायक हो ।

 

*

     जीवन भगवान् की खोज करने के लिए है । जीवन चरितार्थ होता है भगवान् को पाकर ।

 

*

 

      हमारे जीवन की एकमात्र आवश्यकता यही हो- भगवान् को पाना ।

 

*

 

       हां, 'भागवत उपस्थिति' की चेतना में रहना ही एकमात्र चीज है जिसका मूल्य है ।

२ जून, ११३

 

*

       एकमात्र महत्त्वपूर्ण चीज है, हमोर अन्दर और हमारे लिए जो भगवान् चाहते हैं वही चाहना ।

अप्रेल, १

*

 

 


व्यष्टिगत आत्मा और समष्टिगत आत्मा एक ही हैं, हर एक जगत् में, हर एक त्ता में, हर एक वस्तु में, हर अणु में 'भागवत उपस्थिति' मौजूद है और मनुष्य का लक्ष्य है उसे अभिव्यक्त करना ।

३० क्तूबर५१

*

 

      हम भागवत इच्छा को अभिव्यक्त करने के लिए धरती पर हैं ।

२७ जुलाई १९५४

*

 

       एकमात्र महत्त्वपूर्ण चीज ह वह लक्ष्य जिसे प्राप्त करना हे, मार्ग का कोई महत्त्व नहीं है और प्राय: उसे पहले से न जानना ज्यादा अच्छा है ।

१५ नवम्बर, १

*

 

        हम चाहे जो करें, हमें सदा अपने लक्ष्य को याद रखना चाहिये ।

७ दिसम्बर, १९५

*

 

         धरती पर हमारे जीवन का लक्ष्य है भगवान् के बारे में सचेतन होना ।

 

*

          जीवन का सच्चा उद्देश्य :

          भगवान् के लिए जीना या 'सत्य' के लिए जीना या कम-से-कम अपनी अन्तरात्मा के लिए जीना ।

          और सच्ची निष्कपटता-

          भगवान् से बदले में किसी लाभ की आशा किये बिना 'उनके' लिए जीना ।

२० जनवरी १६४

*

 


जीवन का सच्चा लक्ष्य

 

         मेरी सच्ची नियति क्या है ?

 

सच्ची नियति है 'भागवत चेतना' तक पहुंचना ।

 

         इस जीवन में मेरा सच्चा मूल्य क्या है?

 

भगवान् की सेवा करना ।

२२ अक्तूबर १९६

 

*

 

         भगवान् की सेवा के लिए जीना ही जीने का एकमात्र योग्य कारण है ।

जनवरी,६६

 

*

 

      जीवन के लक्ष्य को अहंकार के स्थान पर भगवान् की ओर परिवर्तित करना : स्वयं अपनी सन्तुष्टि खोजने की जगह भगवान् की सेवा को जीवन का लक्ष्य बनाना ।

 

*

 

      तुम्हें जो चीज जाननी चाहिये वह है, ठीक तरह से यह जानना कि तुम जीवन में क्या करना चाहते हो । इसे सीखने में जो समय लगता है उसकी कुछ परवाह नहीं क्योंकि जो लोग 'सत्य ' के अनुसार जीना चाहते हैं, उनके लिए हमेशा कुछ सीखने के लिए, कुछ प्रगति करने के लिए होता ही है ।

क्तूबर १६१

 

*

      जीवन का सच्चा लक्ष्य है अपने अन्दर की गहराइयों में 'भगवान् की उपस्थिति' को पाना और 'उसके ' प्रति समर्पण करना ताकि 'वह' जीवन का, सभी भावनाओं और शरीर की क्रियाओं का मार्गदर्शन करे ।

 


       यह चीज जीवन को सच्चा और प्रकाशमय लक्ष्य प्रदान करती है ।

२८ मार्च,७०

*

 

      जीवन का एक प्रयोजन है ।

      यह प्रयोजन है भगवान् को खोजना और उनकी सेवा करना ।

      भगवान् दूर नहीं हैं, 'वे' हमारे अन्दर हैं, अन्दर गहराई में भावनाओं

और विचारों के ऊपर । भगवान् के साथ हैं शान्ति, निश्चिति और साथ ही सभी कठिनाइयों का समाधान ।

       अपनी समस्याएं भगवान् को सौंप दो और ' वे ' तुम्हें कठिनाइयों से उबार लेंगे ।

३ जुलाई, १७०

 

 

 

 

     जीवन का एक प्रयोजन है-और वही एकमात्र सच्चा और स्थायी प्रयोजन है-वह हैं भगवान् । 'उनकी' ओर मुड़ी तो रिक्तता चली जायेगी ।

      आशीर्वाद ।

*
 


     तुम यहां अपनी अन्तरात्मा के साथ सम्पर्क साधने के लिए हो, और इसी कारण जीते हो, निरन्तर अभीप्सा करो और अपने मन को नीरव करने की कोशिश करो । अभीप्सा हृदय से आनी चाहिये ।

११ जून,७१

*

 

     वही होना और अधिकाधिक वही बनना जो भगवान् हमें बनाना चाहते हैं । यही हमारी सबसे बड़ी तल्लीनता होनी चाहिये ।

जुलाई १७१

*

 

     'दिव्य जीवन' को प्राप्त करने योग्य सबसे महत्त्वपूर्ण चीज समझो ।

*

 

     सुख जीवन का उद्देश्य नहीं है ।  

     साधारण जीवन का लक्ष्य है अपना कर्तव्य पूरा करना, आध्यात्मिक जीवन का लक्ष्य है भगवान् को पाना ।

 

*

 

     जगत् में जैसा कि वह है, जीवन का लक्ष्य व्यक्तिगत सुख पाना नहीं बल्कि अपने को उत्तरोत्तर सत्य-चेतना की ओर जगाना है ।

 

*

     हम सुखी होने के लिए धरती पर नहीं हैं क्योंकि पार्थिव जीवन की वर्तमान दशा में सुख असम्भव है । हम धरती पर भगवान् को पाने और चरितार्थ करने के लिए हैं क्योंकि केवल 'दिव्य चेतना' ही सच्चा सुख दे सकती है ।

 

*

 

     सुखी होने के लिए मत जियो । भगवान् की सेवा करने के लिए जियो,

 


इससे तुम्हें जो आनन्द मिलेगा वह आशातीत होगा ।

मार्च, १९७२

*

 

    मनुष्य ने जब तक भगवान् को न पा लिया हो तब तक उसका जीवन अपूर्ण हे ।

२ जून, ११७२

*

 

    भगवान् सब जगह ओर सब चीजों में हैं; उनकी अभिव्यक्ति के लिए हम 'उन्हें' खोजने और 'उनके' साथ एक होने के लिए बनाये गये हैं ।

१७ सितम्बर, १९७२

 

*

 

    मनुष्य भगवान् को अभिव्यक्त करने के लिए बनाया गया था । इसलिए उसका कर्तव्य है कि भगवान् के बारे में सचेतन हो और अपने-आपको पूरी तरह 'उनकी इच्छा' के प्रति अर्पण कर दे । बाकी सब, चाहे कुछ भी क्यों न दीखता हो, मिथ्यात्व और अज्ञान हे ।

२द्द दिसम्बर, १९७२

*

 

     हम व्यक्तिगत मोक्ष नहीं बल्कि भगवान् के प्रति अपनी सत्ता का पूर्ण समर्पण चाहते हैं ।

*

 

     भगवान् पर एकाग्रता ही सचमुच एकमात्र संगत चीज है । वही करना जो भगवान् हमसे करवाना चाहते हैं, यही एकमात्र संगत चीज है ।

६ जनवरी, १९७३

 

*


 जो स्थायी, शाश्वत, अमर और अनन्त हो, वस्तुत: वही पाने योग्य है, जीतने योग्य है, अधिकृत करने योग्य है । वह है 'दिव्य ज्योति', 'दिव्य प्रेम', 'दिव्य जीवन' -वह 'परम शान्ति', 'पूर्ण आनन्द' और धरती पर 'पूर्ण प्रभुत्व' भी है और इसका मुकुट है 'पूर्ण भागवत अभिव्यक्ति' ।